क्या हूं मैं...क्या नाम है मेरा?
क्या हूं मैं....क्या नाम है मेरा,
जब भी पूछता है कोई;
कुछ भी जवाब नही आता जुबां पर...
क्यों कि ...बेगाना लगता है हर कोई...
रात तो रात ही होती है,
और दिन भी, रात ही है मेरे लिए....
आते- जाते पल, जाने-पहचाने से मेरे लिए...
शायद वे भी नहीं जानते मेरा नाम.....
तभी तो उनकी तरफ से कोई....
कभी आवाज नहीं आई....
नाम तो कभी मिला था मुझे भी....
नाज भी था कभी उस पर मुझे...
नाम उंचा करने की चाहत भी थी दिलमें...
अपनी स्त्री जाती पर गर्व था मुझे....
कुछ नया कर दिखाने की तमन्ना ....
कुछ खोने और कुछ पाने की चाहत...
नई कल्पनाओं को थी....
सुंदर पंखों की तलाश....
विशाल नभ की तलाश....
पल पल गुजरता गया...
पंखों की तलाश में कुलबुलाती रही....
विशाल नभ में ऊडने की आशा में...
मन ही मन बिलबिलाती रही....
धीरे धीरे नाम से नाता रहा.. नाम मात्र का...
अपना कोई रंग ना होते हुए भी....
मै हर रंग में ढलती रही.....
मेरी जरुरत है हर किसीको...
मुझे चाह्ता भी है हर कोई....
..पर नभ नहीं...इस जमीन पर ही
नजरे नीची किए, बैठी हुई....
मुझे देखना चाहता है हर कोई....
ऐसे में किसे अपना समझू?
पराया ही है यहां हर कोई...
तो....
क्या हूं मैं ....क्या नाम है मेरा...
जब भी पूछता है कोई;
कुछ भी जवाब नहीं आता जुबां पर...
क्यों कि...बेगाना लगता है हर कोई...